Wednesday 18 January 2012

भ्रष्‍ट मैं या व्‍यवस्‍था







न्‍ना हजारे के अनशन के दौरान दबे स्‍वर में निजी क्षेत्र को भी लोकपाल मसौदे में शामिल करने की आवाज उठी पर ऐसी आवाजों को कोई महत्‍व नहीं दिया गया।
उस समय मुझे भी लगा कि ये लोग समाज कंटक है किसी कार्य को अच्‍छे से नहीं चलने देना चाहते ।
ऐसा लगना स्‍वाभाविक था क्‍योंकि मेरा वास्‍ता ऐसी स्‍थिति से नहीं पडा था।
अब जब इससे रूबरू हुआ तो मेरी बुद्धि से अज्ञानता का पर्दा हटा कि ये तो पानी में नमक की तरह हमारे अंदर समाया हुआ है ।
हुआ यूँ कि मुझे अपने कॉलेज(हंस कॉलेज ऑफ एजुकेशन ,कोटपूतली ) से अंकतालिका व चरित्र प्रमाण-पत्र लेना था।
कल जब मैं कॉलेज गया तो बाबू ने अंकतालिका तो दे दी पर चरित्र प्रमाण-पत्र देने के लिए 100 रू. मॉंगे।
 मैंने कहा क्‍या मेरा चरित्र खराब है 
जो आप उसे सही करने के लिए रिश्‍वत मॉंग रहे है ।
बाबू कुछ तैश में आते हुए कहा तुम्‍हें लेना है तो लो वरना बाद में आओगे तो 200 लगेंगे ।
जवाब सुनकर मैं अवाक् रह गया मैंने एक दो लोगो से इस संबंध में पूछा तो सबने कहा क्‍यों 100 रू. के लिए पचडा मोल लेते हो दे दो।
चुँकि मुझे इसकी आवश्‍यकता थी मैंने 100 रू. देकर अपना चरित्र अच्‍छा होने का प्रमाण-पत्र प्राप्‍त किया और घर चला आया।
घर आकर जब उसे देखने लगा तो मुझे खुद से नफरत होने लगी कि क्‍या मैं इतना गिर गया जो मुझे अपने चरित्र को अच्‍छा लिखवाने के लिए रिश्‍वत देनी पडी ।
क्‍या मै विरोध नहीं कर सकता था , पर उससे क्‍या होता ऐसी स्‍थिति का सामना तो रोज़ होता है क्‍या यही भ्रष्‍टाचार है अगर यही है तो पूरा जीवन विरोध करने में समाप्‍त हो जायेगा 
और यह दैत्‍य  समाप्‍त हो जायेगा मुझे नही लगता । 
इस अंधकार भरे तूफान में आशा की कोई किरण नजर नही  आ रही
 दिशाऍं खो रही है ,
 मैं भटक रहा हूँ
 उन तमाम आशार्थीयों की तरह जो सोचते है कि लोकपाल नाम का कोई जिन्‍न आयेगा और हम सब को इससे एक दिन मुक्‍त करा देगा। 
                          -घनश्‍याम यादव

Monday 19 December 2011

भारत-भूमि

                                             भारत- भूमि 




















मुझे इस देश से जन्मभूमि के समान स्नेह होता जा रहा है |
यहाँ के श्यामल-कुञ्ज ,घने जंगल ,
सरिताओं की माला पहने हुए शैल-श्रेणी ,हरी-भरी वर्षा 
गर्मी की चांदनी ,शीतकाल की धूप,और भोले कृषक तथा 
सरला कृषक-बालिकाएं बाल्यकाल की सुनी हुई कहानियों की जीवित प्रतिमाएं हैं |
यह स्वप्नों का देश,यह त्याग  और ज्ञान  का पालना,
यह प्रेम  की रंगभूमि -भारतभूमि  क्या  भुलाई  जा सकती है?
कदापि नहीं | 
अन्य देश मनुष्यों की जन्म-भूमि है ,यह भारत मानवता की जन्मभूमि है  |
                  x         x         x
  अरुण यह मधुमय देश हमारा |

                                       
 जहाँ पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा |                                                                                            
                                                           
                   x          x             x
                                                                                         
                                              -कार्नेलिया  (चन्द्रगुप्त)  




                              

Friday 24 June 2011

किसान अन्नदाता या अन्नहीन

आज (24जून) के अंक का मुख्य
पृष्ठ सुबह देखा उस पर
'रोटी की चिँता'
शीर्षक वाली तस्वीर देख
आत्मा को गहरी ठेस
पहुँची ।
अन्नदाता कहा जाने
वाला किसान अपने वजूद
मिट जाने के डर से
रो रहा है , किसान
का यह रुदन आज
से नहीँ सदियोँ से चला आ
रहा है पर किसी ने उसे
सांत्वना नहीँ दी ।
किसान
कभी पूस की रात मे
ठिठुरता है ,कभी गोदान
मे करुणा का पात्र
बनता है उसकी
टीस का समाधान प्रेमचंद
के पास भी नहीँ था शायद
इसलिए ही उसे
विपत्तियोँ
के भँवर मे उसी हाल पर
छोड
दिया था क्योँकि प्रेमचंद
को मालूम था कि
किसान की किस्मत मेँ
मात्र पीड़ा लिखी है इसके
अलावा कुछ नहीँ ।उस समय
के
किसान मे और आज के
किसान मे एक अंतर यह है
कि उस समय किसान यह
सोच कर दिल
को तसल्ली देता था कि कभी हमारा शासन
आयेगा हमारे लोगो के
सत्ता मेँ आने
से हमारी तकदीर
बदलेगी। इसलिए
ही आजादी की लड़ाई मेँ
अपनी पीठ पर लाठी
खाने के लिए उसे
झुका दी पर आज तक
किसान की झुकी कमर
को किसीशासन ने
ऊपर उठाने की कोशिश
नहीँ की बल्कि उसकी पीठ
के घावोँ पर नमक
ही लगाया है,
इस तरह आज के किसान के
पास तो दिल बहलाने
का भी कोई बहाना शेष
नहीँ हैँ।
मानव स्वभाव की एक खास
बात और होती है कि जब
कोई बाहर वाला उसे
बड़ी चोट
दे तो भी उसे कम
पीड़ा होती है पर जब
कोई अपना छोटी चोट करे
तो उसे अपार
पीड़ा होती है ,और जब
अपने ही वज्राघात करे
तो कितनी पीड़ा होगी यह
सोच कर
ही दिमाग सिहर
उठता है। बीते कुछ सालोँ मेँ
किसानोपर जो जुल्म हुए
है,
कभी सिँगुर मेँ
कभी भट्टा परसौल
तो कभी जगतसिँहपुर
ओडिसा के किसानो को
बेरहमी से पीटा जाता है
किसानो का कसूर इतना है
कि उन्हेँ अपनी माँ का
बलात्कार होना मंजूर
नहीँ हैँ
क्योँकि भूमि किसान
की माँ ही होती उसके
अन्न से वह आज तक जिँदा है
और वह ही नहीँ उसे पीटने
वाले भी।शायद किसी को
भी यह अत्याचार
बर्दास्त
ना हो जिसकी रगो मेँ
उसकी माँ का खून
दौड़ता हो
शायद उन पिटवाने
वालो शासकोँ भी यह मँजूर
नहीँ हो पर न जाने क्यूं
उनका
रक्त सफेद हो चला है और
जब शासक वर्ग का खून
सफेद होने लगता है तो इसे
बड़ी क्रांति की आहट
मानी जाती है.....
-घनश्याम यादव