Friday 24 June 2011

किसान अन्नदाता या अन्नहीन

आज (24जून) के अंक का मुख्य
पृष्ठ सुबह देखा उस पर
'रोटी की चिँता'
शीर्षक वाली तस्वीर देख
आत्मा को गहरी ठेस
पहुँची ।
अन्नदाता कहा जाने
वाला किसान अपने वजूद
मिट जाने के डर से
रो रहा है , किसान
का यह रुदन आज
से नहीँ सदियोँ से चला आ
रहा है पर किसी ने उसे
सांत्वना नहीँ दी ।
किसान
कभी पूस की रात मे
ठिठुरता है ,कभी गोदान
मे करुणा का पात्र
बनता है उसकी
टीस का समाधान प्रेमचंद
के पास भी नहीँ था शायद
इसलिए ही उसे
विपत्तियोँ
के भँवर मे उसी हाल पर
छोड
दिया था क्योँकि प्रेमचंद
को मालूम था कि
किसान की किस्मत मेँ
मात्र पीड़ा लिखी है इसके
अलावा कुछ नहीँ ।उस समय
के
किसान मे और आज के
किसान मे एक अंतर यह है
कि उस समय किसान यह
सोच कर दिल
को तसल्ली देता था कि कभी हमारा शासन
आयेगा हमारे लोगो के
सत्ता मेँ आने
से हमारी तकदीर
बदलेगी। इसलिए
ही आजादी की लड़ाई मेँ
अपनी पीठ पर लाठी
खाने के लिए उसे
झुका दी पर आज तक
किसान की झुकी कमर
को किसीशासन ने
ऊपर उठाने की कोशिश
नहीँ की बल्कि उसकी पीठ
के घावोँ पर नमक
ही लगाया है,
इस तरह आज के किसान के
पास तो दिल बहलाने
का भी कोई बहाना शेष
नहीँ हैँ।
मानव स्वभाव की एक खास
बात और होती है कि जब
कोई बाहर वाला उसे
बड़ी चोट
दे तो भी उसे कम
पीड़ा होती है पर जब
कोई अपना छोटी चोट करे
तो उसे अपार
पीड़ा होती है ,और जब
अपने ही वज्राघात करे
तो कितनी पीड़ा होगी यह
सोच कर
ही दिमाग सिहर
उठता है। बीते कुछ सालोँ मेँ
किसानोपर जो जुल्म हुए
है,
कभी सिँगुर मेँ
कभी भट्टा परसौल
तो कभी जगतसिँहपुर
ओडिसा के किसानो को
बेरहमी से पीटा जाता है
किसानो का कसूर इतना है
कि उन्हेँ अपनी माँ का
बलात्कार होना मंजूर
नहीँ हैँ
क्योँकि भूमि किसान
की माँ ही होती उसके
अन्न से वह आज तक जिँदा है
और वह ही नहीँ उसे पीटने
वाले भी।शायद किसी को
भी यह अत्याचार
बर्दास्त
ना हो जिसकी रगो मेँ
उसकी माँ का खून
दौड़ता हो
शायद उन पिटवाने
वालो शासकोँ भी यह मँजूर
नहीँ हो पर न जाने क्यूं
उनका
रक्त सफेद हो चला है और
जब शासक वर्ग का खून
सफेद होने लगता है तो इसे
बड़ी क्रांति की आहट
मानी जाती है.....
-घनश्याम यादव

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